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ज्यायां॑सम॒स्य य॒तुन॑स्य के॒तुन॑ ऋषिस्व॒रं च॑रति॒ यासु॒ नाम॑ ते। या॒दृश्मि॒न्धायि॒ तम॑प॒स्यया॑ विद॒द्य उ॑ स्व॒यं वह॑ते॒ सो अरं॑ करत् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

jyāyāṁsam asya yatunasya ketuna ṛṣisvaraṁ carati yāsu nāma te | yādṛśmin dhāyi tam apasyayā vidad ya u svayaṁ vahate so araṁ karat ||

पद पाठ

ज्यायां॑सम्। अ॒स्य। य॒तुन॑स्य। के॒तुना॑। ऋ॒षि॒ऽस्व॒रम्। च॒र॒ति॒। यासु॑। नाम॑। ते॒। या॒दृश्मि॑न्। धायि॑। तम्। अ॒प॒स्यया॑। वि॒द॒त्। यः। ऊँ॒ इति॑। स्व॒यम्। वह॑ते। सः। अर॑म्। क॒र॒त् ॥८॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:44» मन्त्र:8 | अष्टक:4» अध्याय:2» वर्ग:24» मन्त्र:3 | मण्डल:5» अनुवाक:3» मन्त्र:8


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यः) जो (अस्य) इस (यतुनस्य) यत्न करनेवाले विद्वान् के (केतुना) प्रज्ञान से (ज्यायांसम्) श्रेष्ठ (ऋषिस्वरम्) ऋषियों के उपदेश को (चरति) प्राप्त होता है और जिन (ते) आपका (यासु) जिन प्रजाओं में (नाम) नाम है और (यादृश्मिन्) जैसे व्यवहार में जो अन्य जनों से (धायि) धारण किया जाता है (तम्) उसको (अपस्यया) अपने कर्म्म की इच्छा से (विदत्) प्राप्त होता और (उ) भी (स्वयम्) स्वयम् (वहते) प्राप्त होता है (सः) वह हम लोगों को (अरम्) समर्थ (करत्) करे ॥८॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य यथार्थवक्ता जन के समीप से प्राप्त हुए बोध से स्वयं उत्तम होकर अन्यों को उत्तम प्रकार भूषित करें, वे सुख को प्राप्त होते हैं ॥८॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

योऽस्य यतुनस्य विदुषः केतुना ज्यायांसमृषिस्वरं चरति यस्य ते यासु नामास्ति यादृश्मिन् योऽन्यैर्धायि तमपस्यया विददु स्वयं वहते सोऽस्मानरं करत् ॥८॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ज्यायांसम्) श्रेष्ठम् (अस्य) (यतुनस्य) यत्नशीलस्य (केतुना) प्रज्ञानेन (ऋषिस्वरम्) ऋषीणामुपदेशम् (चरति) प्राप्नोति (यासु) प्रजासु (नाम) (ते) तव (यादृश्मिन्) यादृशो व्यवहारे (धायि) ध्रियते (तम्) (अपस्यया) आत्मनः कर्मेच्छया (विदत्) लभते (यः) (उ) (स्वयम्) (वहते) प्राप्नोति (सः) (अरम्) अलम् (करत्) कुर्य्यात् ॥८॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्या आप्तस्य सकाशात् प्राप्तेन बोधेन स्वयमुत्तमा भूत्वाऽन्यान् सुभूषितान् कुर्य्युस्ते सुखं लभन्ते ॥८॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे आप्त लोकांकडून प्राप्त झालेल्या बोधामुळे स्वतः उत्तम बनून इतरांना उत्तम प्रकारे भूषित करतात ती सुख प्राप्त करतात. ॥ ८ ॥